नीतीश कुमार, एक साल, पीएम इन वेटिंग से सीएम इन वेटिंग तक
अजयेंद्र शुक्ला
पहले नीति की दुहाई देते हुए मोदी के नाम पर भाजपा से अलग हुए क्योंकि उनका दावा था कि मोदी साम्प्रदायिक नेता है। वो अलग बात है कि आडवाणी जिनका गुणगान नीतीश जी करते हैं, इतिहास में मोदी से कहीं ज्यादा साम्प्रदायिक होने के आरोप उन पर लगे। बहरहाल, लोकसभा चुनाव हुए और लगातार दो बार से बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को परिणामों ने यूं झटका दिया कि पार्टी दो सीटों पर सिमट गई। मोदी लहर थी या और कुछ और पता नहीं लेकिन पार्टी के इस प्रदर्शन से नीतीश आहत से दिखे। एक बार फिर उन्होंने नीति की दुहाई दी और अकेले ही मुख्यमंत्री पद का परित्याग करने का निर्णय ले लिया।
कारण बताया कि जनता ने हमें नकार दिया है और इस स्थिति में मैं मुख्यमंत्री पद पर नहीं रह सकता। अचानक से उन्होंने बिना किसी की राय मशविरा किए अनजाने से नाम जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री बना दिया। उनके चयन के पीछे हर जगह उनके महादलित होने को ही आधार माना गया। साथ ही खबरें आईं कि वो नीतीश के येस मैन हैं। नीतीश कुमार ने कभी इस बात का खंडन नहीं किया। जाहिर है खंडन नहीं आया तो खबरें सच ही मानी जाती हैं। उधर सत्ता में आते ही मांझी ने पहले दिन से ही अपनी बयानबाजी से खुद को दलित नेता के तौर पर पेश करने की कोशिश शुरू कर दी। छह महीने के अखबार गवाह हैें कि उन्होंने नीतीश कुमार के लिए कभी कोई गलत बातें नहीं बोलीं, बल्कि वे खुद हमेशा कहते आए कि विधानसभा चुनावों में मुख्यमंत्री का प्रस्ताव वे खुद नीतीश के लिए करेंगे। लेकिन साथ ही अपने वोटबैंक को पकड़े भी रहे और बोलते गए कि मैं व्यक्तिगत तौर पर चाहता हूं कि अगला मुख्यमंत्री महादलित ही बने। समय बीतता गया और बिहार की प्रशासन व्यवस्था हर मोर्चे पर असफल साबित होने लगी, प्रदेश में कानून व्यवस्था की स्थिति में तेजी से गिरावट देखने को मिली। लेकिन नीतीश ने कभी भी एक भी बयान इस संबंध में नहीं दिया। आमतौर पर वे चुप्पी ही बनाए रहते। ज्यादातर समय वे यही कहते आए कि मांझी अपना काम कर रहे हैं, हम तो महागठबंधन में व्यस्त हैं। लेकिन वक्त के साथ मांझी को हटाए जाने की खबरें तेजी से उड़ने लगीं, नीतीश अब भी खंडन ही करते दिखे। इसी दौरान दिल्ली में चुनाव हो गए। चुनाव के दौरान केजरीवाल की बढ़ी लोकप्रियता को देख नीतीश ने जेडीयू के आप को समर्थन की घोषणा कर दी। राजनीति रंग दिखाने लगी थी, अचानक एक दिन मांझ्ाी को बुलाया गया और कहा गया कि इस्तीफा दे दीजिए, लेकिन मांझी ने मना कर दिया। उनका तर्क भी साफ था, कारण तो बताइए। अगर बयानबाजी कारण है तो वह तो मैं पहले दिन से कर रहा हूं, मैंने पार्टी का कोई नियम नहीं तोड़ा है। लेकिन नीतीश अड़े रहे। अचानक से स्थितियां तेजी से बदलीं और मांझी भी खुद का समर्थन जुटाने के लिए हाथ पैर मारने लगे। भाजपा के नेताओं से भी उनकी मुलाकात हुई। नीतीश जो गठबंधन टूटने के बाद से सिर्फ भाजपा को ही दुनिया की सबसे बड़ी दोषी पार्टी मानते आए हैं, एक बार फिर हमला तेज कर दिए। इधर माझी ने विधानसभा भंग करने की सिफारिश कर दी, फिर बहुमत होने का दावा करने लगे। उधर नीतीश ने मांझी के पास बहुमत नहीं होने का दावा किया और कहा कि उन्हें सरकार बनाने की अनुमति दी जाए। लेकिन इससे पहले ही 20 फरवरी को बजट सत्र के लिए सदन आहूत किया जा चुका था। नीतीश दबाव बनाने के लिए दिल्ली तक विधायकों को लेकर उड़ते हुए पहुंच गए, राष्ट्रपति से भी मिल लिए। उधर दो दिन के अंदर ही राज्यपाल ने कहा कि 20 फरवरी को मांझी बहुमत साबित करें। नीतीश ने पैंतरा दिखाया कि इतने दिन क्यों, अभी क्यों नहीं सदन बुला लेते राज्यपाल। जब ज्यादा बयानबाजी करने लगे तो राज्यपाल ने उन्हें झिड़की दी कि सदन पहले ही आहूत किया जा चुका है। नियमानुसार इससे पहले सिर्फ कैबिनेट ही सदन बुला सकती है। और जाहिर था कैबिनेट में तो टूट हो चुकी थी, जो बची थी वो मांझी की थी और वो क्यों सदन बुलाते। बहरहाल, मांझी को तकनीकी दिक्कतों के चलते काफी समय मिल गया और उन्होंने इस दौरान 17 दिन में ताबड़तोड़ छह कैबिनेट बुलाकर 77 फैसलों पर हरी झंडी दे दी। इनमें से कई फैसले ऐसे हुए, जिन्हें पूरा करने में वाकई बिहार सरकार को पसीने छूट जाएंगे। लेकिन वोट बैंक के लिए ये निर्णय काफी अहम हो गए हैं। विश्वासमत के लिए वोटिंग से एक दिन पहले भाजपा ने मांझी को समर्थन देने की घोषणा ये कहते हुए कर दी कि कल सदन में मांझी बहुमत सिद्ध कर पाएंगे या नहीं यह मांझी का मामला है लेकिन जिस तरह से महादलित मुख्यमंत्री के साथ नीतीश कार्रवाई कर रहे हैं, उसके विरोध में भाजपा ने ये कदम उठाया, अगर वोटिंग की नौबत आई तो भाजपा मांझी का साथ देंगी लेकिन सरकार बनी तो उसमें शामिल नहीं होगी। आज सुबह सदन शुरू होने के आधे घंटे पहले मांझी ने इस्तीफा राज्यपाल को सौंप दिया। कहा कि उनके दलित विधायकों केा जान का खतरा है इसलिए वे उनकी सुरक्षा के लिए इस्तीफा दे रहे हैं। अगर वोटिंग करा ली जाए तो अभी भी उनके पास बहुमत से कहीं ज्यादा समर्थन है।
बहरहाल, इस पूरी उठापटक में एक बात साफ होती दिख रही है कि भाजपा ने इस गेम का पूरा फायदा उठाया और मांझी के रूप में बिहार को एक बड़ा नेता दे दिया है। अगर मांझी कल को भाजपा नहीं भी जाते हैं और पार्टी बना लेते हैं तो उसका फायदा भाजपा को ही हो सकता है, जिसने अभी तक राम विलास पासवान की लोकजनशक्ति पार्टी और उपेंद्र कुशवाहा की रालोसपा का बखूबी फायदा उठाया है। वहीं नीतीश कुमार जिन्हें महादलित वर्ग का जनक माना जाता है, मांझी एपिसोड के बाद उनके लिए इस वोट बैंक को बनाए रखना टेढ़ी खीर लग रहा है। दूसरा, जो 77 फैसले मांझी कर गए हैं, सीएम इन वेटिंग नीतीश के लिए उनकी तोड़ निकालना भी आसान नहीं होगा। कुल मिलाकर चुनावी वर्ष है, मजा लीजिए। रंग देखिए लोकतंत्र के। नीतियों को पलटते देखिए नीतियों को उलटते देखिए। जय बिहार।
photo courtsey- PTI
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