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Showing posts from June, 2015

मोदी का स्‍मार्टनेस और सफलता हासिल करने का फलसफा कहीं खुशियों से दूर न कर दे!

इकोनॉमिक टाइम्‍स में आज ये आर्टिकल पढ़ा। अच्‍छा था। पूरा पढ़ा तो धीरे-धीरे एहसास हुआ कि बचपन से हम इन्‍हीं बातों के बीच ही जीते आए हैं। घर में कुछ ऐसे ही सुनने को मिलता रहा- बेटा तुम्हारा जिसमें मन लगता है, वही काम करना, बेटा दूसरों को प्‍यार दो, बड़ों को सम्‍मान, छोटों को खूब खुश रखो, गरीब को कभी खाली हाथ लौटने मत देना, अनुशासित रहो, नियमित रहो, चाहे कुछ भी हो जाए अपना नियम कभी मत तोड़ो। लेकिन जैसे-जैसे उम्र बढ़ती गई, इन बातों को हम पीछे छोड़ते जा रहे हैं। प्रैक्टिकल बनने के दौर में दौड़ लगा रहे हमारे जैसों के लिए ये आर्टिकल सोचने को मजबूर कर रहा है कि खुश होने का सार तो हर भारतीय बचपन से ही जानता है फि‍र क्‍यों उसे पीछे छोड़ता जा रहा है। हमारे देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी स्‍मार्ट वर्किंग और सफलता हासिल करने के नित नए नुस्‍खे बताते हैं। लेकिन क्‍या हमने ये कभी सोचा है कि किस विकास की दौड़ में शामिल हो चुके हैं हम? जिस स्‍मार्टनेस और सफलता को पश्चिम ने हासिल कर लिया और अब अंग्रेजी में उसके साइड इफेक्‍ट हमें बयां कर रहा है, क्‍या वही विकास हमें चाहिए। हम अपने बच्‍चों में वही स्‍मार्टन

क्‍या वक्‍त आ गया है आरक्षण व्‍यवस्‍था की समीक्षा करने का?

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हिन्‍दी फि‍ल्‍मों के दिग्‍गज कलाकार धर्मेंद्र खुद जाट परिवार से ताल्लुक रखते हैं और पिछले दिनों आरक्षण को लेकर जाट व गुर्जरों का आंदोलन काफी तेज रहा था, तो इस संबंध में धर्मेंद्र से पूछा गया। इस पर उन्होंने जवाब दिया कि मैं आरक्षण की अवधारणा के ही खिलाफ हूं। मैं उसमें नहीं पड़ता। लोग पता नहीं कब से रिजर्वेशन ही लिए जा रहे हैं। हर कोई मुंह उठाकर आरक्षण की मांग कर रहा है। किस बात का आरक्षण भई। मुझे गुस्सा आता है कि किस बात का रिजर्वेशन भई! अरे आगे आओ, मेहनत करो। अपने हिस्से का सुख-चैन कमाओ। देश को आगे ले जाओ यार। या हमेशा मांगते ही रहना है। धर्मेंद्र का बयान सुनकर आरक्षण समर्थक शायद यही मतलब ज्‍यादा निकालेंगे या तर्क देते नजर आएंगे कि खुद तो जिंदगी में सफल हैं, इसलिए ये बोल फूट रहे हैं। गरीब का दर्द धर्मेंद्र क्‍या जानें?  मैं अपनी बात भी इस सवाल से ही शुरू करता हूं कि गरीब का दर्द आखिर कौन समझ रहा है? कौन उसे रोटी देने की कोशिश कर रहा है? क्‍या आरक्षण? नहीं बिलकुल नहीं, आरक्षण तो इसलिए गरीब का सहारा नहीं हो सकता क्‍योंकि वो तो जाति-धर्म के आधार पर बनाई गई व्‍यवस्‍था है।

जर्मनी का ये 'हिटलर' है, मोदी का दीवाना!

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http://scroll.in/article/734263/germanys-pegida-anti-islamisation-group-says-it-has-a-new-hero-narinder-modi ये खबर स्‍क्रॉल डॉट इन की खबर का हिन्‍दी अनुवाद है।  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की विदेशों में फैन्‍स की संख्‍या में तेजी से इजाफा होता दिखाई दे रहा है। इन नए प्रशंसकों में जर्मनी की पेजिदा भी शामिल हो गई है। पेजिदा दरअसल पैट्रि‍यॉटिक यूरोपियन अगेंस्‍ट इस्‍लामाइजेशन ऑफ द वेस्‍ट ग्रुप का जर्मन लघु नाम है। ये संगठन पिछले साल ही बना है। इसी साल जनवरी में इस संगठन शार्ली हेब्‍दो नरसंहार के खिलाफ जर्मनी में एक बड़ा प्रदर्शन किया, इस प्रदर्शन में 25 हजार से ज्‍यादा लोगां ने हिस्‍सा लिया, इनकी मांग थी कि जर्मनी में मुस्लिम अप्रवास पर रोक लगे। इस प्रदर्शन के बाद से ही ये संगठन ने दुनिया में अपनी पहचान बना ली। पेजीदा को देखते हुए जर्मनी के अन्‍य हिस्‍सों में भी मी-टू ग्रुप बनने लगे, जैसे लीपजिग में लेजिदा, बॉन में बोजिदा, फ्रैंकफर्ट में फ्रेजिदा और अमेरिका, कनाडा और यूके में भी इससे जुड़े ग्रुप सामने आने लगे हैं। ये हर सोमवार ड्रेसडेन में लगातार सड़क पर प्रदर्शन कर अपनी उपस

बिना हथियार के संभाले हैं कमान, जय जवान!

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http://www.thehindu.com/opinion/op-ed/fighting-without-equipment/article7306306.ece म्‍यांमार में ऑपरेशन की खबरें आने के साथ ही एक तस्‍वीर एजेंसी से जारी हुई थी, जिसे देखते ही दिल बाग-बाग हो उठा था। बोला- ये हैं हमारे व़ीर जवान। मैंने झट से फेसबुक पर इनकी हैलीकॉप्‍टर के साथ की तस्‍वीर कवर फोटो के रूप में चस्‍पा कर ली। इस दौरान मेरी नजर इन जवानों के हाथों में सजे असलहों पर पड़ी। मैंने देखा, अरे क्‍या बात है, किसी अमेरिकी सैनिक की तरह हमारे जवान भी अत्‍याधुनिक हथियारों से लैस हैं। वाह। शाबाश इंडिया। लेकिज द हिंदू की वेबसाइट पर एक आर्टिकल ने आंखों पर पड़े इस परदे को नोंचकर फेंक दिया और धीरे-धीरे उदासीनता मेरे जेहन में धंसती चली गई। पता चला कि हमारे जवान आज भी दशकों पुरानी इंसास और स्‍नाइफर राइफल लेकर आतंकियों की एके-47 से मुकाबला कर रहे हैं। कई साल की कोशिश के बाद भी हमारी सेना के अफसर हथियार खरीद ही नहीं पा रहे। वाकई दुखद है ये। आप भी पढ़िए इस आर्टिकल के अनुवाद को, जिसे रक्षा विशेषज्ञ राहुल बेदी ने लिखा है- आतंकवाद विरोधी अभियानों में सेना की कुशलता पर आधुनिक छोटे हथियारों की

जवाब दिया है, बराबर दिया है

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http://indianexpress.com/article/explained/both-active-and-effective-a-short-history-of-indian-special-ops/   इंडियन एक्‍सप्रेस का ये आर्टिकल पढ़ा तो एहसास हुआ कि हर देशवासी को इसे पढ़ना जरूर चाहिए, इसीलिए इसका अनुवाद किया है। कुछ त्रुटियां रह गई हों तो माफ कीजिएगा।  24 फरवरी 2000 की उस रात लंजोटे के निवासी एलओसी के उस पार से आर्टिलेरी फा‍यरिंग से बचने के लिए पूरी रात बंकरों में दुबके रहे थे। तड़के उठे तो उन्‍होंने रात भर की शेलिंग में मरनेवालों लोगों को गिनना शुरू किया। चौंकाने वाली बात ये थी कि जो 16 शव उन्‍होंने सड़कों पर बरामद किए, उन पर शेल के निशान ही नहीं थे, बल्कि चाकुओं के निशान थे। 90 साल के मोहम्‍मद आलम वली और युवा दंपति मोहम्‍मद मुर्तजा और कलि बेगम का सिर काट लिया गया था, उनका सिर्फ धड़ ही दिखाई दे रहा था, वह भी बुरी तरह काटा गया लग रहा था। इस घटना में दो साल का अहमद नियाज भी अपनी जान गंवा चुका था। जांच में पता चला कि हत्‍यारे अपने पीछे एक इंडियन मेड घड़ी छोड़ गए थे और एक हाथ से लिखा पत्र- अपना खून देखकर कैसा महसूस हो रहा है? सालों बाद अब पाकिस्‍तान ने दावा किया है