क्या वक्त आ गया है आरक्षण व्यवस्था की समीक्षा करने का?
हिन्दी फिल्मों के दिग्गज कलाकार धर्मेंद्र खुद जाट परिवार से ताल्लुक रखते हैं और पिछले दिनों आरक्षण को लेकर जाट व गुर्जरों का आंदोलन काफी तेज रहा था, तो इस संबंध में धर्मेंद्र से पूछा गया। इस पर उन्होंने जवाब दिया कि मैं आरक्षण की अवधारणा के ही खिलाफ हूं। मैं उसमें नहीं पड़ता। लोग पता नहीं कब से रिजर्वेशन ही लिए जा रहे हैं। हर कोई मुंह उठाकर आरक्षण की मांग कर रहा है। किस बात का आरक्षण भई। मुझे गुस्सा आता है कि किस बात का रिजर्वेशन भई! अरे आगे आओ, मेहनत करो। अपने हिस्से का सुख-चैन कमाओ। देश को आगे ले जाओ यार। या हमेशा मांगते ही रहना है।
धर्मेंद्र का बयान सुनकर आरक्षण समर्थक शायद यही मतलब ज्यादा निकालेंगे या तर्क देते नजर आएंगे कि खुद तो जिंदगी में सफल हैं, इसलिए ये बोल फूट रहे हैं। गरीब का दर्द धर्मेंद्र क्या जानें?
मैं अपनी बात भी इस सवाल से ही शुरू करता हूं कि गरीब का दर्द आखिर कौन समझ रहा है? कौन उसे रोटी देने की कोशिश कर रहा है? क्या आरक्षण? नहीं बिलकुल नहीं, आरक्षण तो इसलिए गरीब का सहारा नहीं हो सकता क्योंकि वो तो जाति-धर्म के आधार पर बनाई गई व्यवस्था है। और गरीबों में तो करोड़ों सामान्य वर्ग के भी लोग हैं।
दिल पर हाथ रखकर ईमानदारी सोचिए और फिर जवाब दीजिए कि आज की दुनिया में मजबूत और कमजोर किसे कहते हैं? तीन लोग सामने खड़े हैं, एक सामान्य वर्ग का चपरासी, दूसरा ओबीसी वर्ग का एक सुपरवाइजर और तीसरा एक अनुसूचित जाति या जनजाति का एक आईएएस अफसर। आप किसे कमजोर मानेंगे। वर्तमान आरक्षण व्यवस्था के हिसाब से कहा जाए तो जाहिर सी बात है कि आईएएस अफसर ही सबसे कमजोर दिखेंगे, उसके बाद सुपरवाइजर साहब का नंबर आएगा और सबसे मजबूत चपरासी महोदय हो जाएंगे। क्या किसी के भी ये बात गले उतरी, मेरे तो नहीं उतरती। क्योंकि जिस समाज में मैं पढ़ा-बड़ा हुआ उससे मैंने यही सीखा है कि आज जिसकी आय कम है, धन जिसके पास नहीं, वही कमजोर माना जाता है। हम आये दिन यही कहते रहते हैं कि सबसे बड़ा रुपैया भइया। इस उदाहरण से साफ है कि जाति के आधार पर आरक्षण देना उचित नहीं कहलाएगा।
वैसे जब आरक्षण व्यवस्था लागू की गई तो उसके पीछे एक सोच ये भी थी कि समाज में छुआछूत मिटाना या ऊंच नीच की भावना को खत्म करना भी था। लेकिन इस आरक्षण व्यवस्था से क्या ये खत्म हुआ। छुआछूत की भावना तो भारतीय समाज में तेजी से आते बदलाव के कारण धीरे-धीरे अपने आप ही खत्म सी होती जा रही है। मैं खुद एक ब्राह्मण परिवार से हूं और छुआछूत की बात नहीं मानता, हां, साफ सफाई जरूर रखता हूं, सैनिटाइजर भी इस्तेमाल करता हूं लेकिन किसी और के छूने आदि से मुझे कोई परहेज नहीं। तो आरक्षण का फायदा इस मामले में तो नहीं मिला ये तो शिक्षा का असर ज्यादा दिखता है। अब क्या इस व्यवस्था से ऊंच-नीच पर कोई असर पड़ा? मुझे तो नहीं लगता। आज पैसा ही धर्म हो गया, जो मजबूत धनी जैसे नेता, अभिनेता, बिजनेस टाइकून, आइएएस जैसे सरकार चलाने वाले ओहदेदार, वह हुए क्षत्रिय, (जाति उसकी चाहे जो हो), कॅरियर में सफल जैसे क्लर्क से लेकर मैनेजर तक के लोग हुए ब्राह्मण, कायस्थ (किसी भी जाति के हो), बिजनेसमैन, टाइकून आदि हुए बनिया (किसी भी जाति के हों) और चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी, ड्राइवर आदि हुए शूद्र (ब्राह्मण भी हो सकता है।)। तो ऊंच-नीच की भावना तो अभी भी बरकरार है, नेताजी सड़क से गुजरते हैं तो किसी राजा से कम नहीं, जनता के लिए आज भी रास्ता रोक दिया जाता है। छुटभैया नेता भी गनर लेकर चलता है। जाहिर है इस आरक्षण की व्यवस्था से ऊंच-नीच की भावना ने अपना स्वरूप तेजी से जरूर बदल दिया, खत्म तो नहीं हुई। समाज अब दूसरे ढंग से बंट गया, पहले जाति के आधार पर बंटा था और अब धन और कर्म के आधार पर बंट गया।
हां, देश के विकास पर इस आरक्षण व्यवस्था ने काफी गहरा असर जरूर डाल दिया। 90 के दशक से राजनीति पूरी तरह से आरक्षण पर केंद्रित हो गई। कई तरह की रीजनिंग हल करते हुए राजनीति अब इस स्तर पर आती है कि नेता आंख बंद किए निर्लज्जों की तरह अपनी ही बात से पलट जाता है और जाति के आधार पर उसे सच साबित करने पर तुला रहता है। नेताओं के बयानों पर गौर करें तो सभी जातिवाद, संप्रदायवाद और धर्मनिरपेक्षता की डींगें हांकते दिखते हैं लेकिन असल में पूरी चुनावी गणित जातिवाद पर ही टिकी है। मीडिया खुलेआम लिखती है की लालू-मुलायम का मुस्लिम-यादव वोटबैंक आधार माना जाता है, मायावती का एससी, एसटी पर मजबूत पकड़ है, जीतन राम इसी वर्ग के नेता बनने की कोशिश में हैं, भाजपा का सवर्ण में मजबूत वोटबैंक है आदि आदि। तो देखिए नेताजी हैं तो पूरी तरह निष्पक्ष लेकिन पक्षों के वोट की गणित पर ही सवार हैं। मतलब गलत काम नहीं करते और जो करते हैं वो गलत जरूर है लेकिन क्या करें, हम तो गलत नहीं हैं। नेताजी कुछ इसी तरह का चूरन हम जनता को चटवाते हैं।
बहरहाल, तो क्या अब आरक्षण की व्यवस्था में सुधार की जरूरत है। क्या अब ये समय नहीं आ गया है कि इतने सालों से लागू इस व्यवस्था से समाज पर क्या फायदे और नुकसान हुए, उनका अध्ययन किया जाए। जिस तरह सच्चर कमेटी बनाई गई उसी तरह कोई कमेटी बनाकर आरक्षण की इस व्यवस्था की शत-प्रतिशत समीक्षा की जाए। जब सभी नेता ये कहते हैं कि हम गरीबों, किसानों के साथ हैं और उनका ही विकास देश का विकास है तो गरीब और किसानों में तो गैर आरक्षित वर्ग भी अच्छी खासी तादाद में है, उनकी कौन सुनेगा। क्या अब समय नहीं आ गया है कि आरक्षण को असली कमजोर वर्ग के लिए खोला जाए। वे चाहे किसी भी जाति धर्म के क्यों न हों।
आप बताइए एक आइएएस का बेटा कम नंबर पाने के बाद भी सिर्फ इसलिए नौकरी या उच्च शिक्षण संस्थ्ाान में प्रवेश क्यों पाए क्योंकि वह आरक्षित वर्ग से है। क्यों उस व्यक्ति को वह नौकरी न दी जाए जो बेहतर नंबर लाया है और अनारक्षित पर कमजोर वर्ग से है। ये सही है कि आरक्षण को खत्म करना इस देश में किसी भी राजनेता या पार्टी के बस की बात नहीं, कम से कम फिलहाल तो यही स्थिति है। लेकिन नेता इस व्यवस्था में सिर्फ एक लाइन जोड़कर समस्या को काफी हद तक विकराल होने से रोक जरूर सकते हैं। वह लाइन ये है कि आरक्षण व्यवस्था में कोई बदलाव न किया जाए लेकिन चाहे वह एससी, एसटी हो या ओबीसी, आरक्षण का लाभ उसी कैंडीडेट को दिया जाए, जो आर्थिक आधार पर कमजोर हो। मतलब गरीबी रेखा के नीचे। क्या कोई इस पर हिम्मत दिखाएगा।
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