बिना हथियार के संभाले हैं कमान, जय जवान!





http://www.thehindu.com/opinion/op-ed/fighting-without-equipment/article7306306.ece


म्‍यांमार में ऑपरेशन की खबरें आने के साथ ही एक तस्‍वीर एजेंसी से जारी हुई थी, जिसे देखते ही दिल बाग-बाग हो उठा था। बोला- ये हैं हमारे व़ीर जवान। मैंने झट से फेसबुक पर इनकी हैलीकॉप्‍टर के साथ की तस्‍वीर कवर फोटो के रूप में चस्‍पा कर ली। इस दौरान मेरी नजर इन जवानों के हाथों में सजे असलहों पर पड़ी। मैंने देखा, अरे क्‍या बात है, किसी अमेरिकी सैनिक की तरह हमारे जवान भी अत्‍याधुनिक हथियारों से लैस हैं। वाह। शाबाश इंडिया। लेकिज द हिंदू की वेबसाइट पर एक आर्टिकल ने आंखों पर पड़े इस परदे को नोंचकर फेंक दिया और धीरे-धीरे उदासीनता मेरे जेहन में धंसती चली गई। पता चला कि हमारे जवान आज भी दशकों पुरानी इंसास और स्‍नाइफर राइफल लेकर आतंकियों की एके-47 से मुकाबला कर रहे हैं। कई साल की कोशिश के बाद भी हमारी सेना के अफसर हथियार खरीद ही नहीं पा रहे। वाकई दुखद है ये। आप भी पढ़िए इस आर्टिकल के अनुवाद को, जिसे रक्षा विशेषज्ञ राहुल बेदी ने लिखा है-

आतंकवाद विरोधी अभियानों में सेना की कुशलता पर आधुनिक छोटे हथियारों की कमी परेशानी का सबब बनती दिख रही है। पिछले पांच सालों की बात करें तो छोटे हथियारों के मामले में देश की पैरामिलिट्री फोर्स आर्मी से कहीं आगे निकल चुकी है। आर्मी अभी भी अपनी पैदल सेना के लिए आधारभूत हथियारों को ही जुटा नहीं पा रही है। स्थिति ये है कि 2010 से आर्मी बिना कारबाइन के ऑपरेट कर रही है। आर्मी खुद असॉल्‍ट राइफल हासिल करने में आंतरिक विरोधाभासों से जूझ रही है। सालों बीत गए लेकिन आर्मी के लिए उपयुक्‍त एक राइफल का चुनाव नहीं हो सका कि इसे ही खरीदा जाए।
जो भी नया आर्मी चीफ बनता है, वह आते ही घोषणा करता है कि सेना को हथियार देना उसकी उच्‍च प्राथमिकता है लेकिन साल भर बाद कई ट्रायल और कभी खत्‍म न होने वाले मूल्‍यांकनों के बाद ये उच्‍च प्राथमिकता अधूरी ही रह जाती है।
दूसरी तरफ इतने ही समय में सेंट्रल पैरामिलिट्री फोर्स कई तरह की आधुनिक कारबाइन और असॉल्‍ट राइफल सर्विस में शामिल भी कर चुके हैं। हां ये सही है कि उनकी संख्‍या आर्मी की तुलना में बेहद कम है लेकिन आर्मी उनके खरीद के तरीकों से कुछ सीख तो सकती ही है। ये तो देख ही सकती है कि किन-किन मानकों जैसे- मूल्‍यांकन, टेस्‍ट के आधार पर पैरामिलिट्री फोर्सेस ने इनके लिए हामी भरी और इन्‍हें अपना लिया।  
विडंबना ये है कि काफी बड़ी और युद्ध में पारंगत आर्मी छोटे हथियारों की खरीद में उदाहरण नहीं बन पा रही, अलबत्‍ता हो इसके उलट ही रहा है। 2010-11 से बॉर्डर सिक्‍योरिटी फोर्स (बीएसएफ) और सेंट्रल रिजर्व पुलिस फोर्स (सीआरपीएफ) ने इटली के बेरेट्टा से 34,377 स्‍टॉर्म एमएक्‍स-4 सब मशीन गन खरीदीं। इनमें बैरल के नीचे ग्रेनेड लांचर (यूबीजीएल) की सुविधा भी है और बुल्‍गारिया के आर्सेनल से एके-47 की तरह की 68 हजार एसॉल्‍ट राइफल खरीदीं। सीआरपीएफ अभी और 60 हजार एके-47 खरीदने जा रही है। इसकी खरीद का प्रॉसेस चल रहा है। इसके अलावा सेंट्रल पैरामिलिट्री फोर्सेस द्वारा अन्‍य खरीदों में इजरायल से 2,540 टेवर एक्‍स-95 कारबाइन और जर्मनी से 12 हजार से ज्‍यादा 9एमएम एमपी-5 सब मशीनगन शामिल हैं। इनमें से कुछ हथियार नक्‍सलियों के खिलाफ ऑपरेशन चला रहीं स्‍पेशल स्‍टेट पुलिस यूनिटों में भी वितरित किए जाएंगे।
वहीं दूसरी तरफ भारतीय सेना की छोटे हथियार खरीद की अंतहीन गाथा पूरी तरह से निराशाजनक ही कही जा सकती है क्‍योंकि उनकी गुणात्‍मक आवश्‍यकताओं में भ्रम की स्थिति है और वहां प्रणालिगत अक्षमताएं हैं, इस बात को आर्मी को स्‍वीकार करना पड़ेगा। अब वह सैनिकों को हथियार उपलब्‍ध कराने में रक्षा मंत्रालय को दोषी नहीं कह सकती।
दिसंबर 2010 में आर्मी ने अपने दूसरे विश्‍व युद्ध की विंटेज सब मशीनगन (जिसे अब ऑर्डिनेंस फैक्‍ट्री ने भी बनाना बंद कर दिया है) को बदलने के लिए 44,618 5.56 एमएम क्‍लोज क्‍वार्टर बैटल (सीक्‍यूबी) कारबाइन और 33.6 मिलियन राउंड गोलियों का टेंडर जारी किया। इसका ट्रायल 2013 के अंत में खत्‍म हो चुका है, जिसमें तीन वेंडर हैं। मामले के डेढ़ साल बीत चुके हैं लेकिन आर्मी अभी भी ये तय नहीं कर पा रही है कि आखिर टेंडर दें किसे।
जानकारी के अनुसार कुछ वरिष्‍ठ अफसर कुछ हास्‍यास्‍पद कारणों के साथ अनावश्‍यक रूप से इस अनंत खरीद की प्रक्रिया में एक कारबाइन को दूसरी से और दूसरी को पहली या तीसरी से बेहतर बता रहे हैं। इससे मिलिट्री सर्किल में भय है कि आर्मी की सेलेक्‍शन टीम में इस तरह के क्षुद्र मतभेद पूरी टेंडर प्रक्रिया को ही रद्द न करा दें। और अगर ऐसा हुआ तो दोबारा टेंडर आने में कुछ और साल निकल जाएंगे और तब तक आर्मी को कारबाइन के बिना ही काम चलाना होगा।  
टेंडर की शर्त के अनुसार कारबाइन का वजन 3 किलो से ज्‍यादा न हो और उससे 200 मीटर की दूरी से हर मिनट 600 राउंड फायरिंग की जा सके। साथ ही ये भी शर्त है कि टेंडर हासिल करने वाले कंपनी को उस मॉडल की तकनीक ऑर्डिनेंस फैक्‍ट्री को हस्‍तांतरित करनी होगी ताकि आर्मी की 2 लाख से ज्‍यादा की सीक्‍यूबी की जरूरत पूरी की जा सके।
वहीं एसॉल्‍ट राइफल हासिल करने की कहानी और भी ज्‍यादा चौंकाने वाली व समझ से परे है। चार साल पहले 2011 में आर्मी ने 66 हजार मल्‍टी कैलिबर एसॉल्‍ट राइफल की खरीद का टेंडर जारी किया, इसमें चार विदेशी वेंडर ने दावेदारी पेश की। करीब चार साल तक ट्रायल करने के बाद पिछले नवंबर में आर्मी इस निष्‍कर्ष पर पहुंची कि इस टेंडर को खत्‍म कर देना चाहिए क्‍योंकि कोई भी मॉडल मांग के हिसाब से मानकों पर खरा नहीं उतरता।
इस टेंडर की शर्त ये है कि इसमें मॉड्यूलर एसॉल्‍ट राइफल को सिर्फ बैरल और मैगजीन बदल देने से 7.62 गुणा 39 एमएम से 5.56 गुणा 45 एमएम का बनाया जा सके। ताकि जरूरत के हिसाब से इसका इस्‍तेमाल किया सके। इसमें चुनी गई राइफल डीआरडीओ द्वारा डिजाइन की गई राइफल की जगह लेगी, जिसे कई साल तक झेलने के बाद आखिरकार आर्मी ने 2010 में चलाने में अव्‍यवहारिक करार दिया था।
शॉर्टलिस्‍ट की जाने वाली राइफल की तकनीक को भी सीक्‍यूबी कारबाइन की तरह ही ऑर्डिनेंस फैक्‍ट्री को हस्‍तांतरित किया जाना था, ताकि आर्मी की फौरन 2 लाख 20 हजार एसॉल्‍ट राइफल की जरूरत पूरी की जा सके। इस टेंडर के लिए चार मॉडल ने हिस्‍सा लिया। हिमाचल प्रदेश में डलहौजी के बाद बकलोह कैंट और पंजाब के होशियारपुर में अगस्‍त 2014 में इसके ट्रायल होते रहे। लेकिन आखिरकार ये सभी मॉडल आर्मी की जरूरतों के हिसाब से विभिन्‍न कारणों के कारण फेल करार दिए गए।
आधिकारिक सूत्रों के अनुसार दोबारा ट्रायल होना अब संभव नहीं है शायद और चार साल की मेहनत बेकार चली गई।
अब आर्मी सिंगल कैलिबर राइफल का नया टेंडर लाने की प्‍लानिंग कर रही है। उम्‍मीद है कि ये 7.62 गुणा 39 एमएम की हो, जिसकी 5.56 गुणा 45 एमएम के मुकाबले रेंज कम है, जिसे दुनिया की ज्‍यादातर आर्मी इस्‍तेमाल करती हैं। अभी सिर्फ योजना है। इसके बाद नई राइफल के लिए जानकारी मांगी जाएगी, जिसके कई महीने बाद फि‍र से टेंडर प्रक्रिया शुरू होगी। और फि‍र शुरू होगा असली समय खर्च, जिसमें तकनीक का मूल्‍यांकन, इस्‍तेमाल करने में सुविधा और उसके बाद कीमत पर बातचीत शामिल है और जाहिर है अभी तक की रफ्तार के हिसाब से अंदाजा लगाया जा सकता है कि इसमें करीब तीन से चार साल लग ही जाएंगे।
अब माना जा रहा है कि रक्षा मंत्रालय कारबाइन और असॉल्‍ट राइफल को आयात करने के प्रस्‍ताव व़ैकल्पिक प्रस्‍ताव पर भी गौर कर रहा है, जिसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के मेक इन इंडिया के सपने के तहत इनका निर्माण देश में ही किया जाए। लेकिन इसकी भी प्रक्रिया काफी लंबी और समय लेने वाली ही होने की संभावना है क्‍योंकि इसमें विदेशी निर्माता से निजी या सार्वजनिक सहयोग की जरूरत महसूस होगी, जिसका चयन भी कई चरणों की प्रक्रिया के बाद ही किया जाएगा।
आर्मी अफसरों को चेताया जा चुका है कि उनकी इस धीमी प्रक्रिया के कारण पैदल सेना की यूनिटों की ऑपरेशन करने की क्षमता पर असर पड़ रहा है खासकर उन पर इसका सीधा असर पड़ रहा है जो आतंकवाद के खिलाफ अभियान में लगे हुए हैं, उन्‍हें कश्‍मीर और उत्‍तर पूर्व में बेहतर हथियारों से लैस आतंकवादियों से इंसास रायफल के साथ लड़ने को मजबूर होना पड़ रहा है।
आज स्थिति ये है कि पैरा मिलिट्री फोर्सेस द्वारा इस्‍तेमाल की जाने वाली स्‍नाइपर राइफल आर्मी से कहीं बेहतर और एडवांस हैं। आर्मी के स्‍नाइपर अभी भी सोवियत जमाने की ड्रगुनोव एसवीडी गैस ऑपरेटेड सेमीऑटोमैटिक मॉडल्‍स का इस्‍तेमाल कर रहे हैं, जिनमें 80 के दशक में सेना में शामिल किया गया था।
2010-11 में आर्मी की स्‍पेशल फोर्सेस के लिए 1000 स्‍नाइपर राइफल आयात करने की कोशिश हुई थी। लेकिन ये कोशिश भी बेकार ही सा‍बित हुई। जरूरत अब भी बरकरार है। एक टू स्‍टार अफसर की अगुवाई में एक आर्मी टीम ने इजरायल की आईडब्‍ल्‍यूआई की सेमी ऑटोमैटिक गैलिल स्‍नाइपर राइफल, फि‍नलैंड के बेरेट्टा की साको टीआरजी-22/24 बोल्‍ट एक्‍शन मॉडल और अमेरिका की सिग सॉर्स 3000 मैगजीन फेड राइफल का तुलनात्‍मक ट्रायल किया था लेकिन इसका भी कोई परिणाम नहीं निकला।
दुर्भाग्‍य से आर्मी की उदासीनता से ऐसी विशेषज्ञ राइफल किसी पीड़ित की तरह हो गई हैं, जिनमें न सिर्फ युद्ध और राजनीति की स्थिति में बदलाव लाने की क्षमता है बल्कि इतिहास बदलने का दम है।

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