कर्म कर इंसानियत पर गौर जरूर कर नहीं तो…

दिल्ली में बैठे एक पत्रकार को कई दिन से अच्छी स्टोरी की तलाश थी. वह लगातार कोशिश कर रहा था, लेकिन सफलता हाथ नहीं लग पा रही थी. संपादक को देखते ही उसे दबाव महसूस होता था, वह न चाहते हुए भी मीटिंग में जाता. किसी तरह समय काटता. इसी ऊहापोह के बीच एक दिन उसे एक व्हॉट्सएप ग्रुप से सूचना मिली कि यूपी के एक छोटे से जिले में हाइवे पर बच्चों से भरी स्कूल बस खड्ड में पलट गई. वहां मौजूद एक साइकिल पंक्चर की दुकान वाले ने अकेले ही सभी 32 बच्चों को जान पर खेलकर सकुशल बचा लिया. दुर्घटना में बस ड्राइवर की मौत हो गई थी.

सूचना देखते ही पत्रकार का चेहरा खिल गयावह खुद से कहने लगाऐसी ही स्टोरी का तो इंतजार था. इसके बाद उसने असाइनमेंट डेस्क को सूचना दी और बाइक से ही घटनास्थल के लिए रवाना हो गया. कई घंटे की ड्राइव के बाद वह उस जिले में पहुंचा. यहां लोकल पत्रकारों से संपर्क किया तो उस साइकिलवाले का पता चल गया. वह उसकी दुकान पर पहुंचा तो अंधेरा घिर आया था, हाईवे पर एक छोटी से छप्पर में कोई नहीं था. लोगों से पूछा तो पता चला कि साइकिल वाला यहां से करीब 25 किलोमीटर दूर रहता है. अब सुबह आएगा.

पत्रकार को निराशा हुई. काफी पूछने के बाद भी उसे साइकिल वाले का गांव नहीं पता चल सका. लिहाजा उसने उसी जिले में एक दोस्त के यहां रात बिताने की सोची. सुबह हुई, पत्रकार ने उठते ही दोस्त से विदा ली और झटपट साईकिल की दुकान पर आ गया. दुकान अभी खुली नहीं थी. वह वहां बैठ गया. 7 बजे रहे थे. 9 बजे के करीब एक 40 से 45 साल का शख्स वहां आया. वह साइकिल पर सवार था, पीछे कैरियर पर ट्यूब से बंधा एक बक्सा रखा था. उसने पत्रकार को देखा, पत्रकार ने उसे देखकर मुस्कुराया लेकिन उसने सिर झुका लिया और चुपचाप कैरियर से बक्सा उतारने लगा. बक्से को छप्पर की छांव में रखा और साइकिल छप्पर के बगल में खड़ी कर दी.

पत्रकार ने पूछा- आप ही की दुकान है? उसने कहां- हां.

पत्रकार ने थोड़ा रुककर पूछा- यहीं कहीं पास में रहते हैं आप?

उसने कहा, नहीं थोड़ा दूर है गांव.

अब उसने पूछा- यहां किसी के इंतजार में हो?

इस पर पत्रकार ने कहा- जी हां, आपके ही इंतजार में तो था.

उस शख्स ने पत्रकार की तरफ देखा और पूछा- मेरे इंतजार में? आपके पास तो मोटरसाइकिल है, मैं तो साइकिल ही बना पाता हूं.

पत्रकार ने कहा- अरे नहीं-नहीं. मैं तो बस उस दुर्घटना के बारे में पूछने आया था. जिसमें आपने अपनी जान पर खेलकर 32 बच्चों की जान बचाई थी. यहीं पास में हुई थी न दुर्घटना? क्या हुआ था उस दिन? आपने क्या देखा, कैसे पता चला? पुलिस कब आई थी?

एक साथ इतने सवाल सुनने के बावजूद साइकिल वाला चुप ही रहा.

उसने चुपचाप अपना बक्सा खोला, कुछ डिब्बे बाहर रखे. फिर एक पुराने ट्यूब को निकालाऔर कैंची से उसके पंक्चर के टिप्पल काटकर बनाने लगा. काफी समय बीत गया. टिप्पल काटने के बाद वह उसे एक-एक कर रेगमाल से रगड़ने लगा. ऐसे ही चलता रहा. हाइवे पर से गाड़ियां तेज रफ्तार में गुजर रही थीं. धूल उड़ रही थी. पत्रकार ने फिर पूछा, अच्छा वो बस किस स्कूल की थी? इसी जिले की थी या बाहर से आई थी?

वह पत्रकार की तरफ मुड़ा और पूछा- पानी पिएंगे? पत्रकार ने सिर हिला दिया, तो उसने बक्से से एक छोटा लोटा निकाला और सड़क पार चला गया. वहां से पानी भरकर लाया और पत्रकार की तरफ बढ़ा दिया. बोला- खाने के लिए तो मेरे पास कुछ नहीं है.

पत्रकार ने कहा- अरे कोई बात नहीं और चुल्लू बनाकर लोटे से पानी पी लिया.

लोटा वापस देते हुए पत्रकार ने पूछा- आपके कितने बच्चे हैं?

उसने कहा- तीन, एक बेटी, दो बेटे.

पत्रकार को उम्मीद जगी कि चलो कुछ तो जवब मिला. लेकिन ये उम्मीद थोड़ी ही देर में टूट गई क्योंकि वह फिर से अपने काम में तल्लीन हो गया. देखते ही देखते और समय बीत गया. पत्रकार भी थोड़ समय के लिए बाजार गया और वहां उसने चाय पकौड़ी का नाश्ता किया. थोड़ी पकौड़ी उसके लिए भी ले आया.

करीब 11 बज चुके थे. दुकान पर दो राहगीर साइकिल बनवाने आ गए थे. वह उनकी साइकिल को पूरी तल्लीनता से दुरुस्त करने में लगा था. इसमें और समय बीत गया.

अब पत्रकार से रहा नहीं गया, उसने पूछा- आप तो कुछ बोलते ही नहीं. कुछ तो बताइए उस दुर्घटना के बारे में? आपने इतना बड़ा काम किया है. मैं दिल्ली से आपके लिए ही आया हूं. अरे बच्चों को जान पर खेलकर बचाना कोई छोटी बात है. आप बताइए मैं अखबार में छापूंगा. लोग पढ़ेंगे, उन्हें पता चलेगा कि दुनिया में आज भी आप जैसे लोग हैं.

बस इस पर उस शख्स का चेहरा लाल हो गया. वह बिफरते हुए बोला, आप जानना क्या चाहते हैं? ये कि मैंने मौत के मुंह में खड़े बच्चों को कैसे बचाया? क्यों बचाया? अरे भाईसाहब क्या आप मेरी जगह होते तो ऐसा न करते? क्या ये मेरे बच्चे होते तो ही मैं ऐसा करता? कमाल है. आप पढ़े लिखे लोग हैं और इस तरह की बात करते हैं? क्या लोग अब ये भी जानना चाहते हैं कि एक शख्स ने मौत में खड़ी दूसरे की औलादों को बचा कैसे लिया? क्या उन्हें मरते छोड़ देना चाहिए था. ये कौन लोग हैं, क्या ये इंसान नहीं हैं? या इंसान को ऐस नहीं करना चाहिए. उसने कहा- जाइए भाईसाहब आप बहुत दूर से आए हैं.

पत्रकार चुप था, उसके पास कहने को कोई शब्द नहीं थे. वह आगे कुछ कह भी नहीं सका और चुपचाप बाइक उठाई और दिल्ली वापस लौट गया. रास्ते भर वो उस शख्स के बारे में सोचता रहा लेकिन जैसे ही दफ्तर पहुंचा, उसे असाइनमेंट की याद आ गई. उसने उस शख्स की कुछ तस्वीरें मोबाइल से खीचीं थीं. उसका नाम, गांव आदि भी पता चला था, घटना के बारे में उस शहर के पत्रकारों से स्कूल आदि की जानकारियां भी मिल गई थी. इन्हीं सब को जोड़-तोड़कर उसने खबर फाइल कर दी. खबर की खूब सराहना की गई. एक दिन बाद वो अखबार रद्दी में शामिल हो चुका था और पत्रकार दफ्तर में बैठा उस साईकिल वाले शख्स के बारे में सोच रहा था. उसका चेहरा पत्रकार के जेहन में बार-बार कौंध रहा था, और पत्रकार मन ही मन उस चेहरे से छिपने की कोशिश कर रहा था.

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