Golden age of Indian mathematics was inspired by Babylon and Greece: Amartya Sen
पिछले हफ़ते कोलकाता में इंफोसिसस पुरस्कारों के दौरान नोबेल पुरस्कार
विजेता अमर्त्य सेन ने कहा कि ज्ञान का विकास अन्य संस्कृतियों से सीखने पर
निर्भर करता है। स्क्रॉल डॉट इन ने श्री सेन के पूरे भाषण को अपनी वेबसाइट पर पेश
किया है। मुझे उनका भाषण अच्छा लगा, उसका कुछ हिस्सा मैं अनुवाद के रूप में आप
तक पहुंचा रहा हूं।
अमर्त्य सेन-
मैं अपनी बात की शुरुआत भारत के राष्ट्रपति से माफी मांगते हुए करता
हूं, जो मेरे अच्छे दोस्त रहे हैं, और यहां बीमारी के कारण उपस्थित नहीं हो सके
हैं। मैं उनके जल्द स्वस्थ होने की कामना करता हूं। शोहरत हासिल करने के कई
रास्ते होते हैं। इसमें मूल और शानदार रिसर्च शायद अंतर्राष्ट्रीय ख्याति हासिल
करने का सबसे बेहतर तरीका है। इंफोसिस साइंस फाउंडेशन पुरस्कारों के विजेता कुछ
ऐसा ही कर के दिखा रहे हैं। हमने अभी उनकी बेहतरीन उपलब्धियों के बारे में सुना और
हमें उनके इस कार्य पर फक्र है। लेकिन ख्याति हासिल करने के और भी तरीके हैं।
भारत के राष्ट्रपति के लिए तय रखी गई कुर्सी पर बैठकर आसानी से ख्याति हासिल की
जा सकती है। मैं इस तरह की दुघर्टनावश मिली ख्याति पाकर काफी प्रफुल्लित महसूस कर
रहा हूं।
इसी तरह से एक और वाकया मुझे याद आ रहा है, जब दुघर्टनावश ख्याति
मेरे हिस्से चली आई थी। मैं जर्मनी के हैनोवर में एक कांफ्रेंस में गया था। वहां
से मैं अपने होटल को लौट रहा था और एक ट्रैफिक लाइट पर मैं रुका क्योंकि वहां
पैदल चलने वालों के लिए रेड लाइट थी। उस सड़क पर किसी भी तरफ कोई भी कार नहीं थी।
करीब 100 सेकेंड के एकांत के बाद मैंने तय किया कि एक भी कार नहीं है और ये
बेवकूफाना है कि चुपचाप यहां खड़े रहा जाए। विचार आया कि अगर मैं जब जरूरी है तो कानून
अपने हाथ में नहीं ले रहा हूं, ऐसे में मेरे एक भारतीय के रूप में नहीं गिने जाने
का खतरा हो सकता है। (कौन जानता है, मैं अपनी भारतीय नागरिकता ही खो दूं।) तो
मैंने स्वाभाविक तौर पर सड़क पार करने का कदम बढ़ा दिया, लेकिन सड़क के उस पार खड़े
एक शख्स ने मेरे इस कदम पर अपनी असहमति जताई और मुझसे कहा कि प्रोफेसर सेन, जर्मनी
में जब लालबत्ती हो तो पैदल चलने वालों को भी इंतजार करना पड़ता है। ये ही हमारा
नियम है, प्रोफेसर सेन। मैं इस डांट से काफी प्रभावित था, लेकिन इससे भी ज्यादा
प्रभावित इसलिए भी था क्योंकि मेरी ख्याति हैनोवर तक पहुंच गई थी और मैं यहां
सड़कों पर भी पहचान लिया जा रहा था। मैंने सोचा कि अपने इस अपरिचित दोस्त से बेहतर
ढंग से पेश आता हूं और मैंने उससे बड़ी शालीनता से पूछा कि मुझे याद दिलायें कि हम
पिछली बार कहां मिले हैं?
इस पर उस शख्स ने जवाब दिया कि हम कभी नहीं मिले हैं और मुझे ये भी
नहीं पता है कि आप कौन हैं, लेकिन आप अपने कॉन्फ्रेंस का बैज पहने हुए हैं, जिस
पर आपका नाम लिखा है।
नाम की पहचान व़ास्तव में ख्याति के लिए एक अनिश्चित मार्गदर्शक हो
सकती है। हालांकि इंफोसिस साइंस के पुरस्कार जीतने वालों को इसकी जरूरत नहीं या
जल्द ही उन्हें अपनी पहचान के लिए किसी कांफ्रेंस बैज की जरूरत नहीं पड़ेगी। उन्होंने
साथ मिलकर शानदार काम किया है। मैं उन्हें बधाई देता हूं। इन पुरस्कारों से खुद
के जुड़ाव होने पर भी मैं काफी गौरवान्वित महसूस कर रहा हूं। इन पुरस्कारों की
शुरुआत से ही मैं इसका ज्यूरी सदस्य हूं। मुझे वह दिन अच्छे से याद है, जबकि
नारायण मूर्ति ने मुझसे संपर्क किया और इस काम में साथ देने के लिए आमंत्रित किया।
भारत में होने वाली कई शानदार चीजों के मूर्ति एक दूरदर्शी लीडर रहे हैं। जैसे ही
उन्होंने मुझे बताया, मुझे फौरन ही पता चल गया कि भारत पर या भारतीय द़वारा की गई रिसर्च को सम्मान
देने के लिए इस हाइप्रोफाइल पुरस्कार को सफल होने से कोई नहीं रोक सकता। जब
मूर्ति ने मुझसे संपर्क किया तो मैं उस समय पुराने नालंदा के कैंपस या कहें कि खंडहरों
में था। और उस समय में नई नालंदा यूनिवर्सिटी में कैसे शानदार पढ़ाई और बढ़िया
रिसर्च को साथ ला सकूं इसकी योजना में व्यस्त था। (जैसा कि नालंदा विश्वविद्यालय
का इतिहास रहा है।)
मूर्ति मुझे जिसलिए आमंत्रित कर रहे थे, उसमें रिसर्च का एसेसमेंट तो
था ही, पढ़ाना भी शामिल था। रिसर्च करने का कौशल ये ही है कि नए और मूल काम के लिए
काफी कड़ी तैयारी करनी पड़ती है, क्योंकि आपको पहले से स्थापित ज्ञान से आगे जाना
होता है। और चुनौतीपूर्ण और कुछ नया सोचने में एक अच्छी शिक्षा की जरूरत पड़ती है।
मेरे लिए ये घर की शुरुआत थी। मेरे दादाजी क्षिति मोहन सेन, जो शांति निकेतन में
पढ़ाया करते थे, वह संस्क्रत की पढ़ाई में मेरी रुचि से काफी उत्साहित होते। जो आज
भी मेरी इस खूबसूरत भाषा के लिए प्रति लगाव में प्रेरणादायक हैं। हमें याद रखना
चाहिए कि संस्कृत में केवल हिन्दू और बौद़ध ग्रंथ ही नहीं आए, बल्कि ये अन्य उग्र
विचारों की भी वाहक बनी। जिनमें अलौकिक व्यक्त को लेकर व्यापक संदेह लोकायत
ग्रंथ में पेश किए गए। ये जाति, वर्ग और सत्ता की वैधता पर अप्रत्याशित वाकपटुता
की वाहक भी बनी, जिसे शूद्रक ने अपने गहन नाटक मृच्छकटिकम पेश किया।
मैं अपने अन्य शिक्षकों का भी ॠणी हूं, इनमें शांति निकेतन,
प्रेसीडेंसी कॉलेज और कैंब्रिज में ट्रिनिटी कॉलेज के शिक्षक शामिल हैं, जिन्होंने
मुझे मेरा रास्ता चुनने में मदद की। मुझे पूरा विश्वास है कि आज के विजेता भी
आगे भविष्य में अपनी रिसर्च के लिए तैयारियों में मदद करने वाले शिक्षकों का जरूर
याद करेंगे।
शिक्षण की विस्तृत भूमिका के बारे में मैं कुछ कहना चाहूंगा। ये
विभिन्न देशों, विभिन्न सभ्यताओं को जोड़ती है। शिक्षण सिर्फ एक शिक्षक द्वारा
एक छात्र को दिया जाने वाला उपदेश मात्र नहीं है। विज्ञान और ज्ञान के विकास में
आमतौर पर एक देश या लोगों के एक ग्रुप द़वारा अर्जित की गई जानकारी किसी दूसरे देश
या संगठन द्वारा अर्जित की गई जानकारी की प्रेरणा बन जाती है।
उदाहरण के लिए भारतीय गणित विज्ञान का स्वर्णिम युग, जिसने दुनिया भर
की गणित का चेहरा ही बदल दिया, शायद पांचवी से 12वीं सदी के बीच का रहा और हम
भारतीयों ने इसकी प्रेरणा बेबीलोन, ग्रीस और रोम में किए गए कार्यों से ली। भारत
में विश्लेषणात्मक सोच की परंपरा रही है, लेकिन हमने ग्रीक और रोमन और
बेबीलोनियन से मिली प्रमेयों और प्रूफ से ही सीखा। दूसरों से सीखने में कोई शर्म
की बात नहीं है अगर हम उसका इस्तेमाल अच्छे कार्य के लिए करते हैं और नए ज्ञान
की खोज करते हैं, नई समझ् पैदा करते हैं और चौंकाने वाले विचार और परिणाम पैदा
करते हैं।
अगर आप पूरा टेक्स्ट पढ़ना चाहते हैं तो नीचे लिंक क्लिक कर सकते हैं।
भारतीय भी वास्तव में अन्य भारतीयों को शिक्षा दे रहे थे। बल्कि
प्राचीन भारत के सबसे ताकतवर गणितज्ञ ब्रह्मगुप्त भी अपने शिक्षकों द्वारा दिए गए
निर्देशन के बिना शानदार काम नहीं कर पाए होंगे। खासकर आर्यभट्ट, भारतीय गणित के
अग्रणी लीडर। ईरानी गणितज्ञ अलबरूनी, जिन्होंने दसवीं सदी के अंत से 11 सदी की
शुरुआत तक कई साल भारत में गुजारे, (और जिन्होंने अरब गणितज्ञों को भारतीय गणित
से और भी ज्यादा सीखने में सहायता की।) की सोच रही है कि ब्रह्मगुप्त ही भारत के या
पूरी दुनिया के ही सबसे शानदार गणितज्ञ और खगोल विज्ञानी थे। साथ ही वह यह भी कहते
हैं कि ब्रह्मगुप्त सिर्फ इसीलिए इतने महान हुए, क्योंकि वे आर्यभट्ट के ही
कंधों पर सवार थे, जो खुद न सिर्फ एक असाधारण वैज्ञानिक और गणितज्ञ थे, बल्कि एक
बेहतरीन शिक्षक भी थे। एक दूसरे से सीखने की व्यवस्था शताब्दियों से चलती आई है,
इसमें आर्यभट्ट और ब्रह्मगुप्त के साथ वाराहमिहिर और भास्कर सहित तमाम लोग शामिल
रहे हैं।
और इसी तरह भारतीय गणितज्ञों ने कुछ न कुछ बेबीलोनियन्स, ग्रीक और
रोमन्स से सीखा साथ ही उन्होंने कई बेहतरीन नए आइडिया दुनिया भर के कई गणितज्ञों
तक पहुंचाए। उदाहरण के लिए, यी जिंग, सातवीं और आठवीं शताब्दी के बीच चीन में
रहते थे और जैसा कि जोसेफ नीदम ने बताया है कि वह चीने में अपने समय के सबसे
बेहतरीन गणितज्ञ थे, जिन्हें भारतीय ग्रंथों की पूरी जानकारी थी। चीनी गणितज्ञ के
साथ ही अरब के अग्रणी गणितज्ञ, जिनमें अल ख्वाराजमी (जिनके नाम से ही गणित में
एल्गोरिद्म आया।) भी शामिल हैं, को संस्कृत भाषा आती थी और वे संस्कृत भाषा में
गणित का पूरा ज्ञान रखते थे। यहां हम भारतीय गणित की प्रशंसा नहीं कर रहे हैं, जो
अलग-थलग पड़ गई (विश्व में ऐसा कहीं नहीं हुआ।), बल्कि हम प्रशंसा कर रहे हैं किस
तरह गणित ने अंतर्राष्ट्रीय और अंतरक्षेत्रीय स्तर पर विचारों के आदान-प्रदान
में बड़ी भूमिका निभाई। भारतीय शोधों में विदेशों में किए गए काम का असर देखने को
मिलता है और इसके बदले भारतीय गणित ने उन सभी देशों के गणितीय कार्य में अपना
प्रभाव डाला, जिनमें ग्रीस और रोम और बगदाद भी शामिल हैं, जहां से भारतीयों ने खुद
काफी कुछ सीखा।
मैं एक उदाहरण के साथ अपनी बात खत्म करना चाहूंगा। त्रिकोणमिति में एक
टर्म है साइन, ये टर्म बताता है कि किस तरह हमने एक दूसरे से सीखा। आर्यभट्ट ने इस
त्रिकोणमितीय आइडिया को विकसित किया। उन्होंने इसका नाम दिया ज्या-अर्द्ध और बाद
में इसे छोटा करके ज्या कर दिया गया। अरब के गणितज्ञों ने आर्यभट्ट के इस आइडिया
का इस्तेमाल किया और इसे ज्या से जिबा नाम दिया, जो सुनने में ज्या के करीब
बैठता था। लेकिन अरबी भाषा में जिबा का कोई अर्थ नहीं होता, लेकिन जैब, जिसका वही
व्यंजन था, अरबी का एक अच्छा शब्द था और क्योंकि अरबी लिपि में स्वर नहीं
होते इसलिए अरबी गणितज्ञों की बाद की जेनरेशन ने जैब टर्म का इस्तेमाल किया, जिसका
शाब्दिक अर्थ होता है खाड़ी। फिर 1150 में जब क्रेमोना के इटैलियन गणितज्ञ
गेरार्डो ने इस शब्द का लैटिन भाषा में अनुवाद दिया तो साइनस शब्द सामने आया। इस
शब्द का अर्थ भी खाड़ी ही होता है। इसके बाद आधुनिक त्रिकोणमिति में साइन शब्द उत्पन्न
हो गया और आज प्रचलन में है। इस सिर्फ एक शब्द में हमतीन सभ्यताओं भारतीय, अरब
और यूरोपीय के बीच आपसी संबंध देख सकते हैं।
पढ़ाना और सीखना ये लोगों को आपस में जोड़ते हैं। हम आज विज्ञान और शोध
पर लुत्फ उठा रहे हैं लेकिन हमें ये ध्यान रखना होगा कि इसके पीछे शिक्षण का
सबसे बड़ा महत्व रहा है और साथ मिलकर सीखना भी, हमने सभी से कुछ न कुछ सीखा है
चाहे वह हमारे शिक्षकों की तरफ से, हमारे साथियों की तरफ से, हमारे छात्रों की तरफ
से, हमारे दोस्तों की तरफ से यही नहीं संपूर्ण मानव जाति से हमने सीखा है। इन सभी
आपसी संबंधों में कुछ न कुछ महान जरूर है।
इंफोसिस के इस साल का पुरस्कार जीतने वाले विजेताओं को मेरी बधाई बधाई,
उन्होंने जो कुछ सीखा है, उसको बधाई, उन्हें जिन्होंने शिक्षा दी, उन्हें
बधाई, उन्हें जो भी प्रोत्साहन मिला उन्हें बधाई क्योंकि इसकी कारण उन्होंने
आज शानदार काम करके दिखाया है।
अगर आप पूरा टेक्स्ट पढ़ना चाहते हैं तो नीचे लिंक क्लिक कर सकते हैं।
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