darkness

बादल इतराते है कि धक् ही लिया सूरज को मैंने
और सूरज है कि हार मानने को तैयार नहीं
बुरे पल में भी वो रौशनी देना नहीं भूलता
देखो! फिर से सूरज कि चमक दिखने लगी है
फिर से बादल का दौर ख़त्म हो रहा है
हर कदम पे सोचता हूँ थक गया हूँ मैं
पर मूढ़ के देखता हूँ कहा से निकल के आ गया हूँ मैं
अब तो रौशनी करीब है और थक गया हूँ मैं!
'तो उठ जाग मुसाफिर भोर भयी
जो सोवत है सो खोवत है'

दो कदम तुम भी चढो
दो कदम मैं भी चढ़ूँ
मंजिलें रात कि मुश्किल नहीं दूर नहीं...
बड़ी कोशिश कि ख़त्म करने कि लेकिन
कमबख्त ख़त्म नहीं होती ये 'मैं' मेरे अन्दर से
पर 'मैं' भी 'मैं' हूँ, इलाज देख ही लिया 'मैंने'
...कि हर साँस के साथ जो थोडा और करीब खिसक जाता हूँ
कभी तो मिलेगी 'मेरे' हिस्से कि मौत






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आपके कुछ शब्‍दों से मानो चित्र ही बोलने लगते हैं। सुंदर चित्रों के लिए दिल से आभार...

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