In search of a tiger

हमारे पास लेटेस्ट मोबाइल है, लैपटॉप है. टैक्नॉलॉजी सैवी इतने कि अब हम ज्यादा से ज्यादा काम ऑनलाइन करने लगे हैं. आई पॉड पर गाने सुनते हैं, फूड कम फास्ट फूड ज्यादा खाते हैं. मगर, एक टाइगर शहर के पास आ गया तो उसे ढूढ़ नहीं पाते. आलम यह कि जेब में मोबाइल रखकर महावत, अपने हाथी के सूंघने की शक्ति से जंगल में टाइगर खोज रहा था और पल-पल की डिटेल फोन पर अधिकारियों को देता था. वहीं अधिकारी टाइगर के पग माक्र्स पर माथापच्ची कर रहे थे। पिछले दिनों लखनऊ और आसपास के इलाके में कुछ ऐसी ही स्थिति देखने को मिली। मां से अलग होने के बाद करीब ढाई साल का एक टाइगर अपनी टेरेटरी बनाने की कोशिश में भटककर राजधानी लखनऊ की तरफ आ गया। अब उसे क्या पता कि जो जमीन उसके पुरखों की हुआ करती थी, उस पर इंसानों ने बस्ती बना ली है. खैर, टाइगर की सूचना कोंकरीट के जंगल में आग की तरह फैल गई. फटाफट प्रशासन की ओर से कई टीमें गठित कर दी गईं. हुंकर भरी गई कि इस टाइगर को पकड़कर वापस जंगल में भेज देंगे. लखनऊ का चिडिय़ाघर भी मुस्तैद कर दिया गया. और तो और जंगल के चार स्पेशलाइज्ड हाथी भी मंगवा लिए गए, जो टाइगर की गंध सूंघकर अपने महावत को बताने में सक्षम हैं. दो पिंजड़े, जिनमें गोश्त रखा गया, पांच ट्रंक्यूलाइज गन और 100 से ज्यादा कर्मचारियों के साथ ग्रामीणों का हुजूम. लगा कि टाइगर तो बस पकड़ा ही गया. मगर ये हो न सका, बड़े-बड़े अफसरों ने न जाने कितने किलोमीटर खाक छान ली, पर टाइगर नहीं मिला. सभी जानते थे कि ये टाइगर किसी इंसान पर हमला नहीं करेगा, क्योंकि वह खुद इंसान की गंध से दूर भागता है. लेकिन दो हफ्ते से ज्यादा हो गए जंगल में राजा की तरह रहने वाला टाइगर, शहर के पास भीगी बिल्ली बनकर छिपता घूमता रहा। भूख तो भूख है. यह ऐसी चीज है कि इंसान को जानवर बनने पर मजबूर कर देती है, फिर टाइगर की क्या कहें? दो हफ्ते भूखा घूमने के बाद आखिरकर उसने एक 14 साल के लड़के को अपना शिकर बना ही लिया। अब सुना है कि वह टाइगर जैसुख जंगल में चला गया है. कुल मिलाकर एक इंसान की जान और लाखों खर्च करने के बाद भी हम एक टाइगर को नहीं पकड़ सके. क्या हमारे पास ऐसी कोई रेस्क्यू टीम नहीं है? जो घर से भटके इस मेहमान को अपने इलाके में दोबारा भेज सके।हम हाइटेक इतने हैं कि आज तक यह नहीं गिन सके कि पूरे देश में कुल कितने टाइगर्स एक्जिस्ट करते हैं. सिर्फ देश के प्रमुख टाइगर रिजर्व में ही की गई गिनती को हम पूरे दावे से सही नहीं कह पाते. टाइगर बचाने के हमारे सारे दावे क्या बेमानी नहीं?गिनती करना चाहें तो कई रास्ते हैं। इनमें लेटेस्ट सैटेलाइट सिस्टम भी है, जिसे दूसरी country में तेजी से एडाप्ट किया जा रहा है. लेकिन सैटेलाइट तो दूर की बात है इंडिया में अभी तक रेडियो कालर का प्रयोग पूरा नहीं हो सका है. यहां रेडियो कालर उन्हीं टाइगर्स पर लगाया जा सका है, जो जंगली इलाके से बाहर निकल जाते हैं और उन्हें दोबारा जंगल में छोड़ा जाता है. उन पर रिसर्च की जाती है.अफ्रीका के कई देशों में गैंडों और चीतों पर रेडियो कालर लगाए जा चुके हैं. इसी तरह कनाडा में पोलर बियर्स को रेडियो कालर लगाए गए. रेडियो कालर से न सिर्फ विशेषज्ञ इन पर नजर रखते हैं, बल्कि उनकी सुरक्षा में भी काफ़ी आसानी हो गई है।अपने यहां की बात करें तो टाइगर सेंसस के दौरान दुधवा और किशनपुर सेंचुरी में वाइल्ड लाइफ इंस्टीटयूट ऑफ इंडिया (डब्लयूआईआई) ने एक दर्जन कैमरे इंस्टाल किए थे. कैमरे कोई फोटो खींच पाते इससे पहले ही चोर चार कैमरे चुरा ले गये. पता चला कि एक कैमरे में चोरों के फोटो कैद हो गए।ये तो हम आप भी मानेंगे कि हमारे पास साधनों की कमी नहीं है. जरूरत है तो बस इच्छाशक्ति की. अगर सूचना क्रांति में हम इतना आगे हो चुके हैं तो टाइगर की सूचना इकट्ठी करना कितना मुश्किल है. कहीं ऐसा न हो कि जिस तेजी से हम टेक्नॉलॉजी एडाप्ट करते हैं, उससे भी कहीं तेजी से हमारे सदियों के ये साथी हमेशा के लिए गायब न हो जाएं.

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